धरती पर एक विशिष्ट चील ( काईट ) होती है जिसे घोंघा चील कहते हैं। अपनी पतली, तीखी और घुमावदार चोंच द्वारा यह चील चिकने और बड़े कवच में सुरक्षित घोंघो ( स्नेल ) को निकाल कर उनका शिकार करती है इसलिए यह धरती के सबसे विशेषज्ञ शिकारियों में गिनी जाती है। घोंघे के अलावा यह दूसरे किसी जीव का शिकार न के बराबर ही करती है। चूंकि यह सिर्फ एक ही जीव का शिकार करती है तो यह पानी के स्त्रोत के आसपास ही रहती है और अकेले ही शिकार करती है हालांकि शाम पड़े इनका झुंड आराम के लिए पानी से दूर जाते देखा जा सकता है। इसके उड़ने में गरिमा की कमी भी देखी जाती है क्योंकि बड़े और मोटे पंखों के कारण यह ज्यादा गति से नहीं उड़ पाती है।
घोंघे को एक पंजे में पकड़ कर यह चील बड़ी चतुराई से उसका भोजन करती है और जब तक घोंघे
मिलते रहते हैं तब तक अन्य जीव जैसे मछली, सांप, चूहा आदि का शिकार नहीं करती है। यह
उन्हे उस समय के लिए छोड़े रखती है जब किसी वर्ष बरसात नहीं हो और घोंघे गायब हो जाते
हैं।
यह चील जोड़े नहीं बनाती है। समयानुसार नर चील हवा में तरह तरह की कलाबाजी करके मादा
को रिझाता है, बच्चों को दोनों मिलकर भोजन प्रदान करते हैं, पालते पोसते है और ज्यों
ही बच्चे बड़े हो जाते हैं नर और मादा एक दूसरे को छोड़ कर अलग हो जाते हैं और अगले
वर्ष किसी नए साथी की तलाश करते हैं।
मनुष्य द्वारा पानी पर एकाधिकार और घोंघे के वैश्विक व्यापार के कारण यह चील अब समाप्ति
के कगार पर है। 1967 के बाद से ही इसकी संख्या में तेजी से कमी आ रही है और अब तो यह
गिनती की संख्या में ही रह गई है। आने वाले समय में यह चतुर शिकारी मात्र पुस्तकों
और लेखों में ही दिखाई देगा। मनुष्य की न मिटने वाली भूख के सामने एक और जीव विलुप्ति
के अंधेरे में गुम हो जायेगा।
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