किसी दिन एक व्यस्त सड़क के किनारे खड़े होकर देखिए तो पाएंगे कि इक्का दुक्का लोगों को छोड़ कर ज्यादातर लोग तनाव में नजर आते हैं फिर चाहे चमचमाती कार की अगली सीट्स पर बैठे नवदंपति हों या ड्राइवर के पीछे बैठे प्रौढ़ युगल। लगता है गुस्सा और तनाव सड़क पर सरपट दौड़ते जा रहे हैं। सवाल उठना स्वाभाविक है कि सब सुविधाओं के बाद भी चेहरों पर रूखेपन और चिड़चिड़ाहट ने क्यों आधिपत्य जमा रखा है ? शहरीकरण की अपनी त्रासदियां होती हैं, अपनी पीड़ाएं होती है। अथाह भीड़ का खुद का अकेलापन होता है पर एक प्रमुख समस्या जो तेजी से उभरकर सामने आ रही है वह है हर तरफ हर तरह का प्रदूषण।

     सूर्योदय के साथ ही हवा भारी होने लगती है। सुबह सुबह की ठंडी हवा चारों तरफ फैले वातानुकूलन संयंत्रों की मार से आहत और मरियल सी जान पड़ती है और बगीचे के फूलों पर मिट्टी की काली भूरी परत ने कब्जा जमाया होता है। रात के भय से भयभीत बासिंदो ने अपने अपने मकानों की हर खिड़की, हर झरोखा कस कर बंद किया हुआ होता है ताकि चोर तो क्या हवा का ताजा झोंका भी घर में घुस ना सके। यह एक कारण है कि सुबह सुबह के चेहरे थके हुए से लगने लगे हैं, दशक बीत गए किसी नव कवि ने सुबह के चेहरे पर कोई मधुर गीत लिखने का साहस नहीं किया। हर तरह के प्रदूषण ने जीवन में कितना बासीपन ला दिया है और हम इसे विकास का नाम दे रहे हैं।

     मौसम के इधर से उधर की ऊंचाइयों या गिरावटों के नए कीर्तिमान, कहीं पानी का जलजला और कहीं आग के लपटों जैसी लू , अंगारों में बदलते जंगल, भुने जानवरों की लाशें और कहीं दरकते खिसकते हिमखंड। मानव मन बेचैन  और ह्रदय कम्पायमान। तुम इसे प्रगति कहते हो ! माना कि बहुत सारे क्षैत्रों में काफी कुछ बेहतर हो रहा है पर जब अस्तित्व पर ही सवाल उठ खड़ा हो तो बेहतरी किस काम की, अच्छे दिनों का क्या कीजिएगा ?

     घर से बाहर निकलते ही गंदगी बिखरी हुई है, शौचालय अभियान के बावजूद दीवारों को सींचते हमारे मर्द, रात की बची सड़ांध मारती सब्जियां फेंकती गृहणियां। वातावरण और मन दोनों ही प्रदूषणयुक्त हो गए हैं तो हम जो भी कार्य करेंगे तो व्यवहार का प्रदूषण भला कौन रोक पायेगा?  पागलों की तरह रिश्वत लेते लोग, ठगते लोग, निर्दयी होते लोग, हिंसा अपनाते लोग, तर्क को दूर भागते लोग। क्या यह सब यूं ही हो रहा है ? नहीं, यह हमारे रोम रोम में रमते विभिन्य प्रकार के प्रदूषण का फल है। कर लो दुनियां मुट्ठी में ? किसी ने यूं ही नहीं कहा था। यह अंतर्मन की झलक थी। लालच की लपट थी जोकि वर्षों से सांप की तरह मानव मन में लहरा रही थी, प्रकृति की तबाही का सबब बन रही थी। कारें अब प्रेयसी हैं और धन प्रेमी।  अब लोग कहते हैं कि धड़कते जज्बात मूर्खों के गहने हैं ! और कितना मनोविकार चाहिए इंसान को ? तुम बदले वातावरण बदला, अब वातावरण बदल रहा है जो तुम्हें बदलेगा। जरा सोचो, यदि एक साल दुनियां में पानी नहीं बरसे, सिर्फ एक बरस एक बूंद भी नहीं ?

     हमें हमारी औकात का अहसास हमेशा रखना चाहिए। हवाओं का रुख बदलने के दावे करने वाले कब और कहां हवा हो गए कभी किसी को पता तक नहीं चला। अपनी आवश्यकताओं को समेटो, धरती से जितना लेते हो उतना ही लौटाओ। बिना आवश्यकता के किसी भी प्राकृतिक या अन्य साधन का उपभोग बंद करो। प्रदूषण दीमक है और दीमक के आगे बरगद भी असहाय होता है।