जयपुर ब्यूरो रिपोर्ट। 
प्रसिद्ध कथाकार प्रोफ़ेसर आलम शाह ख़ान की बीसवीं पुण्य स्मृति में उदयपुर सूचना केंद्र सभागार में देश के ख्यातनाम साहित्यकारों ने विचार-विमर्श किया। इस  दौरान साहित्यिक और सांस्कृतिक सत्रों में उनकी कहानियों तथा कथा में नाटक के तत्व आदि विषयों पर चर्चा हुई। 
आलम शाह ख़ान यादगार कमेटी की संयोजक कथाकार तराना परवीन ने बताया कि कार्यक्रम में साहित्यकार फारूक आफरीदी, डॉ.पल्लव, प्रबोध कुमार गोविल, असगर वजाहत जैसे देश प्रदेश के  प्रबुद्ध साहित्यकारों ने भागीदारी निभाई। कार्यक्रम राजस्थान साहित्य अकादमी और  डॉ.आलम शाह खान यादगार समिति के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित हुआ। 
डॉ.तराना परवीन ने बताया कि प्रथम एवं उद्घाटन सत्र में मुख्य अतिथि सुप्रसिद्ध उपन्यासकार  प्रबोध कुमार गोविल रहे और  अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार फारूक आफरीदी ने की। दूसरे सत्र में मुख्य वक्ता देश के मधुर मशहूर रंगकर्मी और जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष असगर वजाहत रहे । अध्यक्षता डॉ.माधव हाड़ा ने की। तीसरे सत्र में मुख्य वक्ता लईक हुसैन रहे और अध्यक्षता हेमेंद्र चण्डालिया ने की। 
ख्यातनाम व्यंग्यकार और कवि फारूक आफरीदी ने कहा कि डॉ. आलम शाह खान समाज के गरीब, पिछड़े, मजदूर और महिला वर्ग की चिंताओं और तकलीफों के सशक्त  कथाकार थे। उन्होंने मानव अधिकारों के हनन को लेकर अपनी कहानियाँ लिखी और मजलूम, बेजुबान और हाशिए के समाज के पक्ष में खड़े होने का साहस दिखाया। उनकी आंचलिक भाषा के वैशिष्टय को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली। 
सुप्रसिद्ध उपन्यासकार प्रबोध कुमार गोविल ने कहा कि उन्होंने डॉ आलम शाह  की कई कहानियाँ पढ़ी। कहानियों पर उनकी मजबूत पकड़ थी, उनके साहित्य पर लम्बे समय तक चर्चा होती रहेगी।  गोविल ने कहा कि अभी उनका उजाला और घना करने की जरूरत है।उन्हें अपने जीवन में विभिन्न स्तरों पर लड़ाई लड़नी पड़ी, उनके अद्भुत लेखन के प्रति साहित्य संसार  नतमस्तक है। 
वरिष्ठ कवि और प्रगतिशील लेखक संघ के प्रदेश अध्यक्ष गोविंद माथुर ने कहा कि राजस्थान के लेखकों में शाह की चर्चा अधिक नहीं हुई। डॉ शाह सर्वहारा वर्ग की कहानियाँ लिखते थे। उनकी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए हमें कोशिश करनी चाहिए एवं साहित्य अकादमी और अन्य संस्थाओं को आगे आना चाहिए। प्रसिद्ध आलोचक डॉ.सत्य नारायण व्यास ने कहा कि फासीवादी लोग पाखंड के बल पर सत्ता में आ जाते हैं। डॉ आलम शाह खान की आज भी जरूरत है, उनका कबीराना अंदाज गजब का था, वे स्पष्टवादी एवं निर्भीकता के प्रतीक थे। उनके चरित्र में दोहरापन नहीं था, वे विद्रोही प्रवृति के लेखक थे, कबीर की तरह विद्रोही प्रवृति के थे। उनकी कहानियाँ मनोरंजन के लिए नहीं थी, जीवन के अस्तित्व का संघर्ष उनकी कहानियों में झलकता था। 
उर्दू की  प्रतिष्ठित विद्वान डॉ. सरवत खान ने कहा कि शाह की कहानियाँ आने वाली पीढ़ियाँ पढ़ेंगी और हमेशा प्रासांगिक रहेंगी। हम सभी को मिल कर शाह के सृजन पर और अधिक काम करना चाहिए। गीतकार किशन दाधीच ने कहा कि शाह के संस्मरणों पर किताब आनी चाहिए।वे खुद्दारी के सिपाहसलार थे। उनकी भाषा अपने समय और परिवेश की भाषा है। वे समय के दु:ख और कष्टों को निकटता से देखते थे।उनकी कहानियों में समाज का दुख झलकता था।
तृतीय सत्र की अध्यक्षता राजस्थान साहित्य अकादमी के अध्यक्ष डॉ. दुलाराम सहारण ने की। उन्होंने कहा कि अकादमी राजस्थान के पुरोधाओं के सम्मान में कार्यक्रम आयोजित करेगी। उन्होंने घोषणा की कि अकादमी अगले वर्ष प्रोफेसर आलम शाह खान के सम्मान में दो दिवसीय आयोजन करेगी। सत्र के मुख्य वक्ता भारतीय लोक कला मंडल के निदेशक डॉ लईक हुसैन ने डॉ आलमशाह ख़ान की चर्चित कहानी "मौत का मज़हब" की प्रस्तुति के विविध पक्षों की चर्चा की और कहा कि डा. ख़ान की चर्चित कहानियों में जिन मानवीय मूल्यों का चित्रण है, उन्हें जन जन तक पहुंचाना आवश्यक है। 
इस सत्र में युवा रंगकर्मी सुनील टाक में प्रोफेसर आलम शाह खान की कहानियों के नाट्य रूपांतरण एवं लघु फिल्म निर्माण की संभावनाओं की चर्चा की। इस सत्र का संचालन प्रोफेसर हेमेंद्र चंडालिया ने किया। सत्र के अंत में डॉ. तबस्सुम खान एवं समिति अध्यक्ष आबिद अदीब ने धन्यवाद ज्ञापित किया। भारतीय लोक कला मंडल में कविराज लाइक हुसैन के निर्देशन में आलम शाह खान की कहानी "मौत का मजहब" की नाटकीय प्रस्तुति सराहनीय रही।