दिलों में फैलती जो खाइयाँ हैं
तभी तो बढ़ रहीं तन्हाइयाँ हैं
जहाँ देखो बबूलों की हैं थापें
कहाँ अब टेरती अमराइयाँ हैं
बड़े ऊँचे हैं जुमलों के कँगूरे
बड़ी नीची मगर गहराइयाँ हैं
दिखाती हैं जो मुझको राह मेरी
तेरे धोखे की ही परछाइयाँ हैं
नहीं दिखती है कोई छाँव शीतल
तपन की चल रहीं पुरवाइयाँ हैं
हर इक छींका तुम्हारा मुन्तज़िर है
हर इक छींके पे कुछ अँगड़ाइयाँ हैं
बिगड़ता कुछ नहीं 'साहिल' का अक्सर
नदी के सामने रुस्वाइयाँ हैं
लोकेश कुमार सिंह 'साहिल'
(लेख में प्रस्तुत विचार लेखक के अपने हैं। Rajkaj.News की इन विचारों से सहमति अनिवार्य नहीं है। किंतु हम अभिव्यक्ति की स्वंत्रता का आदर करते हैं।)
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