हिंदुत्व आधारित राजनीति

ऋषिकेश राजोरिया की कलम से।

हिंदुत्व आधारित राजनीति का प्रारंभ वीर सावरकर की किताब से शुरू होता है, जिसमें उन्होंने 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन को लिपिबद्ध किया था। उस घटनाक्रम को ब्रिटिश लोग गदर मानते हैं, जबकि सावरकर ने उसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सिद्ध किया था। उनका व्यक्तित्व बहु आयामी था। वह वकील, कवि, लेखक, राजनीतिज्ञ और नाटककार थे। विनायक दामोदर सावरकर ने पहली बार हिंदुत्व शब्द का प्रयोग किया था। सावरकर एक कुशल संगठन कर्ता थे। उन्होंने महाराष्ट्र में मित्र मेलों का आयोजन कर स्थानीय नवयुवकों को संगठित कर उन्हें क्रांतिकारी बनने के लिए प्रेरित किया था। वकालत पढ़ने के लिए लंदन पहुंचने के बाद ही उन्होंने भारत में अंग्रेजों का प्रभुत्व समाप्त करने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया था। अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से उन्होंने अनेक क्रांतिकारी कार्य किए और कालापानी की सजा काटी। हालांकि यह बात भी सही है कि उन्होंने सजा से बचने के लिए अंग्रेज सरकार से कई बार माफी मांगी। माफी मांगने के बाद वह हिंदू-मुसलमान में सांप्रदायिक भेदभाव फैलाने में जुट गए। इन दिनों सावरकर विवाद के केंद्र बने हुए हैं।

1857 में अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन तब शुरू हुआ, जब ईसाइयों को धर्म प्रचार की स्वतंत्रता मिली और राजदरबार की भाषा अंग्रेजी हो गई। अंग्रेजों ने धार्मिक ग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद शुरू किया और एक विधि आयोग का गठन कर नया दंड विधान बनाने की प्रक्रिया शुरू की। अंग्रेज सरकार ने 1853 में धार्मिक स्थलों का प्रबंधन स्थानीय समितियों को सौंप दिया। इसके अगले साल 1854 में अदालतों में जो थोड़े-बहुत पंडित और मौलवी बचे थे, वे भी हटा दिए गए। इस तरह देश की पुरानी धार्मिक संस्थाएं नष्ट हो गई और हिंदुओं के साथ ही मुसलमान भी यह समझने लगे कि अंग्रेज उन्हें ईसाई बनाना चाहते हैं। इन बदलावों से तत्कालीन भारतीय समाज भीतर ही भीतर खदबदा रहा था। उस समय लार्ड डलहौजी भारत का वायसराय था। उसी के कार्यकाल में 1857 में अंग्रेज सरकार के सिपाहियों ने बगावत कर दी थी।

बगावत को कुचलने के बाद अंग्रेज सरकार ने भारत में औद्योगिक विकास की नींव रखी। दुनिया में तेजी से बदलाव शुरू हो चुके थे। कई कारखाने स्थापित होने लगे थे। अंग्रेजों के लिए भारत की जमीन से निकलने वाला कच्चा माल महत्वपूर्ण था, जिसके आधार पर उन्होंने व्यावसायिक प्रगति की। भारत अंग्रेजी माल का अच्छा-खासा बाजार बनकर उभरा। अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ। लोगों की रुचियां और जीवन-शैली बदली। वेशभूषा बदली। कारखाने लगने से भारत की कई पारंपरिक कलाएं और उद्योग समापन की स्थिति में पहुंचे। नए बाजार बने। देश में रेलों का जाल फैला। कोलकाता, बंबई, मद्रास जैसे प्रमुख बंदरगाह रेलमार्ग से जोड़ दिए गए। इसके साथ ही पूरे देश में सड़कों का जाल भी फैला। इस तरह सिर्फ सौ साल के भीतर पूरा देश बदल चुका था। देश आजाद होने के बाद एक फिल्म का गाना सुपरहिट हुआ था – छोड़ो कल की बातें, कल बात पुरानी, नए दौर में लिखेंगे, हम सब नई कहानी।... आजाद होने के बाद से देश इसी रास्ते पर आगे बढ़ रहा है। लेकिन देश विभाजन के फलस्वरूप जो राजनीतिक घाव भारत ने झेले हैं, उनको समय-समय पर हरे करने का कार्य भी जारी है।

1942 तक भारत के विभाजन की रूपरेखा नहीं बनी थी। इस देश की हिंदू और मुसलमान आबादी अंग्रेज सरकार के खिलाफ समान रूप से एकजुट थी। आजादी का आंदोलन चरम पर पहुंचा हुआ था। हिंदुओं की राजनीतिक पार्टी हिंदू महासभा की स्थापना 1915 में हो चुकी थी। इसके पहले अध्यक्ष वीर सावरकर थे। इससे पहले 1906 में आल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना हो चुकी थी। सर आगा खान मुस्लिम लीग के पहले अध्यक्ष चुने गए थे। मुस्लिम लीग अपने तरीके से और हिंदू महासभा अपने तरीके से अंग्रेजों का विरोध कर रही थी। कांग्रेस का प्रभाव इसके बाद बढ़ा, जब गांधी ने हिंदू और मुसलमानों को धार्मिक मतभेद भुलाकर अहिंसक तरीके से अंग्रेज सरकार का विरोध करने की प्रेरणा दी थी। इसी दौरान 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई, जिसने कट्टर हिंदुत्व पर आधारित गैर राजनीतिक संगठन खड़ा किया। इसके अगले साल 1926 में एक मुस्लिमों के कट्टर संगठन तबलीगी जमात की स्थापना हुई।

1940 का समय गुजरते-गुजरते भारत को अंग्रेजी शासन से मुक्त कराने की जनभावना इतनी बलवती हो चुकी थी कि अंग्रेजों के लिए भारत पर अपना शासन बनाए रखना मुश्किल था। तब उन्होंने हिंदू-मुसलमानों के बीच परंपरागत लड़ाई को पुनर्जीवित करने का काम किया। इस माहौल में    9 अगस्त 1942 को गांधी जी ने भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा कर दी। इसके साथ ही गांधी सहित प्रमुख कांग्रेस नेता जेल भेज दिए गए और देश में अफरा-तफरी के माहौल को बढ़ावा दिया गया। दंगों की शुरूआत हुई। इसी दौरान मोहम्मद अली जिन्ना मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग उठाने लगे थे, जिससे हिंदू-मुसलमानों के बीच खाई बढ़ी।

16 अगस्त 1946 को बंगाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री हुसैन शाहिद सोहरावर्दी ने डायरेक्ट एक्शन की घोषणा कर दी। वह कोलकाता और उसके आसपास के हिस्सों को पाकिस्तान में मिलाना चाहता था। कोलकाता में पहली बार बड़े पैमाने पर हिंदु-मुसलमान दंगे सोहरावर्दी ने करवाए थे। उस दौरान बड़े पैमाने पर हिंदुओं को मुसलमान बनाने की घटनाएं हुईं। 10 अक्टूबर 1946 को टिपरा और नोआखाली में भयंकर दंगे हुए। इस घटना के बाद पूरे देश में सांप्रदायिक जहर घुलता चला गया। गांधी अपने हिसाब से हालात पर काबू करने की कोशिश करते रहे। कांग्रेस अपने हिसाब से राजनीति करती रही। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विस्तार अपनी गति से जारी रहा और इस दौरान अंग्रेज सरकार लोगों को आपस में लड़वाकर इज्जत के साथ अपने हिसाब से सत्ता हस्तांतरण करने की भूमिका बनाती रही। जिन्ना ने एक अलग देश का सपना पाल लिया।

14 अगस्त 1947 की रात 12 बजे के बाद 15 अगस्त की तारीख शुरू होते ही पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भारत की सत्ता संभाल ली। इससे पहले इस्लामाबाद में मोहम्मद अली जिन्ना ने इस्लामाबाद में सत्ता संभाली। उस समय देश में भीषण सांप्रदायिक तनाव फैला हुआ था। देश विभाजन के फलस्वरूप आपसी-लड़ाई झगड़ों में इतिहास का अब तक का सबसे बड़ा खून-खराबा हुआ। इस तरह अंग्रेज भारत को एक बहुत बड़ा घाव देकर उसे भरने की जिम्मेदारी नेहरू को संभलाकर चले गए। अंग्रेज सरकार के कानून-कायदे अभी भी कायम है। जिस तरह अंग्रेज सरकार जनता के साथ व्यवहार करती थी, वैसा ही व्यवहार स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक सरकार भी करती है। देश आजाद होने के बाद क्या परिवर्तन हुआ? हिंदुओं का क्या भला हुआ और हिंदुत्व के आधार पर कुछ लोगों को सत्ता सौंपने का क्या परिणाम निकला, इस पर गंभीर विचार-विमर्श की जरूरत है। 

(लेख में प्रस्तुत विचार लेखक के अपने हैं। Rajkaj.News की इन विचारों से सहमति अनिवार्य नहीं है। किंतु हम अभिव्यक्ति की स्वंत्रता का आदर करते हैं।)