हिंदुओं के सामाजिक आंदोलन

ऋषिकेश राजोरिया की कलम से।

जातिवाद के दंश से बचने की प्रक्रिया में आज हिंदू कई भागों में विभाजित हो चुके हैं। धर्म की व्याख्या करने का एक सिलसिला देश में आदिकाल से चलता रहा है और इन व्याख्याकारों को हिंदू समाज गुरु के रूप में मान्यता देता रहा है। गुरु शब्द का कई तरह से महिमामंडन हुआ है। परमात्मा तक पहुंचने का रास्ता गुरु ही बताते हैं, यह मान्यता अब तक बनी हुई है। राजा-पुरोहित मिलीभगत के कारण हिंदू समाज की जो विचित्र स्थिति बन चुकी थी, उससे बचने के हिए हिंदू समाज के अनेक गैर राजपूत, गैर ब्राह्मण जातियों के लोगों ने धर्म का पालन करते रहने के लिए अन्य साधुओं-संतों को मान्यता देना शुरू कर दिया। कालांतर में ऐसे कई साधु-संत महान घोषित हुए। आज पूरा देश इस तरह के साधु-संतों से भरा हुआ है। इनमें से कुछ आध्यात्मवादी हैं, कुछ योग और भोग का समन्यवय करने वाले हैं और बाकी भोगी हैं।

हिंदुओं का नया समाज बनने की प्रक्रिया क्रूर जातिवाद के विरोध में शुरू हुई। इस जातिवाद के चक्कर में सबसे ज्यादा मुसीबत स्त्रियों की रही। इसके साथ ही जातिवादी कुरीतियों के कारण लड़के-लड़कियों के विवाह संबंध तय करने में लोगों को आज भी बहुत परेशानी होती है। इसके अलावा अगर किसी स्त्री-पुरुष में प्रेम संबंध हो जाएं तो बहुत बड़ा उपद्रव हो जाता है। पुरुष का कुछ नहीं बिगड़ता, स्त्री की जिंदगी बिगड़ जाती है। कई स्त्रियों को देह व्यापार में धकेल दिया जाता है। हिंदुओं की ही कुछ जातियां ऐसी भी हैं, जिनके परिवार का जीविकोपार्जन ही देह व्यापार से होता है। इन तमाम सामाजिक कुप्रथाओं से बचने के लिए भारत में तरह-तरह के धार्मिक समूह बने, जो कि हिंदू ही हैं, लेकिन वे जातिवाद को त्याग चुके हैं।

बौद्ध, जैन के बाद सिख संप्रदाय का उभार भी इसी प्रक्रिया के तहत हुआ। इसके बाद भी हिंदुओं में अलग-अलग नए संप्रदाय बने, जिन्होंने अभी अलग धर्म का रूप नहीं लिया है। हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियों की प्रतिक्रिया के रूप में भारत में कई धार्मिक आंदोलन हुए। हिंदू धर्म की आलोचना जिन कुरीतियों के आधार होती रही, उनमें जाति प्रथा, छुआ-छूत, सती प्रथा, बाल विवाह, अनुष्ठान और देवी-देवताओं के निमित्त बलि प्रथा, निर्दोष प्राणियों की हत्या, मूर्ति पूजा और दहेज प्रथा प्रमुख हैं। इनमें पहले आंदोलनकारी कबीर हुए, जिन्होंने उपनयन (जनेऊ) प्रथा का विरोध किया। कबीर भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। उन्होंने हिंदुओं के साथ ही मुसलमानों की कुरीतियों का भी जमकर विरोध किया। कबीर का जीवन काल 14वीं और 15वीं शताब्दी के दौरान बताया जाता है। जीविकोपार्जन के लिए वह जुलाहे का काम करते थे। वह एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकांड के विरोधी थे। वह अवतार, मूर्ति, रोजा, ईद, मस्जिद, मंदिर आदि को नहीं मानते थे। बाद में उनके नाम से एक कबीर पंथ बना।

कबीर के बाद बंगाल में सामाजिक और धार्मिक समाज सुधार आंदोलन शुरू हुआ, जिसके तहत सती प्रथा, बाल विवाह, जाति प्रथा आदि कुरीतियों के खिलाफ 1828 में राजा राममोहन राय और द्वारिकानाथ टैगोर ने ब्राह्म समाज की स्थापना की थी। इससे पहले राजा राममोहन राय 1815 में आत्मीय सभा की स्थापना कर चुके थे। 1828 में यही आत्मीय सभा ब्राह्म समाज में परिवर्तित हो गई। बाद में केशवचंद सेन ब्राह्म समाज से जुड़े। उन्होंने 1866 में भारतवर्षीय ब्रह्म समाज की स्थापना की थी। ब्रह्म समाज के प्रमुख सिद्धांत हैं, ईश्वर एक है और वह संसार का निर्माणकर्ता है, आत्मा अमर है, मनुष्य को अहिंसा अपनाना चाहिए और सभी मानव समान हैं। ब्रह्म समाज के आंदोलन के फलस्वरूप 1829 में तत्कालीन वायसराय विलियम बेंटिक ने कानून बनाकर सती प्रथा को अवैध घोषित कर दिया था।

हिंदुओं का दूसरा प्रमुख सामाजिक सुधार आंदोलन आर्य समाज के रूप में शुरू हुआ, जिसकी स्थापना स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1875 में बंबई में मथुरा के स्वामी विरजानंद की प्रेरणा से की थी। आर्य समाज मूर्ति पूजा, अवतारवाद, बलि, झूठे कर्मकांड और अंधविश्वासों को मान्यता नहीं देता है। धुआछूत और जातिगत भेदभाव का विरोध करता है। आर्य समाज स्त्रियों और शूद्रों को भी यज्ञोपवीत धारण करने और वेद पढ़ने का अधिकार देता है। स्वामी दयानंद सरस्वती रचित सत्यार्थ प्रकाश आर्य समाज का मूल ग्रंथ है। आर्य समाज का आदर्श वाक्य है- कृण्वंतो विश्वमार्यम। अर्थात विश्व को आर्य बनाते चलो। आर्य समाज के प्रमुख अनुयायियों में दयानंद सरस्वती के बाद स्वामी श्रद्धानंद, महात्मा हंसराज, लाला लाजपत राय, भाई परमानंद, पंडित गुरुदत्त, स्वामी आनंदबोध सरस्वती, स्वामी अछूतानंद, चौधरी चरण सिंह, पंडित वंदे मातरम रामचंद्र राव, बाबा रामदेव आदि के नाम उल्लेखनीय  हैं। सभी आर्य समाजी वेदों के अनुकूल चलने का प्रयास करते हैं और दूसरों को भी उस पर चलने की प्रेरणा देते हैं।

महर्षि दयानंद सरस्वती योगीराज थे। उन्होंने 18 घंटे समाधि में रहने के बाद करीब आठ हजार किताबों का मंथन कर अद्भुत और क्रांतिकारी सत्यार्थ प्रकाश की रचना की थी। आर्य समाज के अन्य माननीय ग्रंथों में वेद, उपनिषद, षड्दर्शन, गीता, वाल्मीकि रामायण आदि शामिल हैं। महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में इन सबका सार दे दिया है। आर्य समाज की परंपराओं के तहत ईश्वर का सर्वोत्तम और निज नाम ओम है। ईश्वर की अलग नामों से मूर्तिपूजा ठीक नहीं है। आर्यसमाज वर्ण व्यवस्था ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को कर्म पर आधारित मानता है। आर्य समाज में मांस, अंडे, बीड़ी, सिगरेट, शराब चाय, मिर्च-मसाले आदि वेद विरुद्ध माने गए हैं। आर्य समाज ने भारत में राष्ट्रवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

आर्य समाज और ब्रह्म समाज से पहले, कबीर पंथ के बाद हिंदू समाज की कुरीतियों को दूर करने का कार्य गुरु नानक के माध्यम से हुआ, जिनके उपदेशों से बाद में सिख संप्रदाय बना। गुरु नानक का जन्म रावी नदी के किनारे स्थित गांव तलवंडी में कार्तिक पूर्णिमा को एक खत्री परिवार में हुआ था। अब तलवंडी का नाम नानक के नाम पर ननकाना हो गया है। ईसवी सन के अनुसार नानक की जन्म तिथि 15 अप्रैल, 1469 बताई जाती है। वह बचपन से ही अत्यंत बुद्धिमान थे और उन्होंने सात-आठ वर्ष की उम्र में पढ़ना-लिखना छोड़ दिया था। जब वह 16 वर्ष के थे, तब सुलक्खनी के साथ उनका विवाह हुआ। 32 वर्ष की उम्र में उनके पहले पुत्र श्रीचंद का जन्म हुआ। चार वर्ष बाद दूसरे पुत्र लखमीदास का जन्म होने के बाद ईसवी सन 1507 में नानक अपने परिवार की जिम्मेदारी ससुर पर सौंपकर मरदाना, लहना, बाला और रामदास नामक चार साथियों के साथ तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़े थे। 1521 तक नानक यात्राएं करते रहे। उन्होंने चार यात्रा चक्र पूरे किए, जिसके तहत भारत, अफगानिस्तान, फारस और अरब के मुख्य स्थानों का भ्रमण किया। इन यात्राओं को पंजाबी में उदासियां कहा जाता है।

गुरु नानक सर्वेश्वरवादी थे और सनातन धर्म के तहत चली आ रही मूर्ति पूजा का विरोध करते थे। उन्होंने सभी को एक परमात्मा की उपासना करने का उपदेश दिया और हिंदू धर्म में फैली कुरीतियों का विरोध किया। उनके उपदेशों का मुसलमानों पर भी प्रभाव पड़ा। गुरु नानक का जीवन मानवता के प्रति समर्पित रहा। आश्विन कृष्ण पक्ष दशमी, संवत 1597 ( 22 सितंबर ईसवी सन 1539) को उनका देहांत हुआ। इससे पहले उन्होंने अपने प्रमुख शिष्य लहना को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था, जो बाद में गुरु अंगद देव के नाम से जाने गए। गुरु अंगद देव के बाद क्रमशः गुरु अमर दास, गुरु राम दास, गुरु अर्जुन देव, गुरु हरगोबिंद, गुरु हर राय, गुरु हर किशन, गुरु तेग बहादुर, गुरु गोबिंद सिंह नानक की परंपरा के उत्तराधिकारी रहे। उसके बाद से गुरु ग्रंथ साहिब सिख धर्म के प्रमुख धर्मग्रंथ के रूप में स्थापित हो गया।

गुरु ग्रंथ साहिब में प्रमुख सिख धर्मगुरुओं के साथ ही 30 अन्य हिंदू संतों और अलग धर्म के मुस्लिम भक्तों की वाणी शामिल है। इनमें जयदेव और परमानंद जैसे ब्राह्मणों के अलावा कबीर, रविदास, नामदेव, सैणजी, सधनाजी, पीपाजी, धन्नाजी, बैणीजी, भीखनजी, सूरदास, रामानंद की वाणी प्रमुख है। पांचों वक्त नमाज पढ़ने वाले शेख फरीद के उपदेश भी गुरु ग्रंथ साहिब में शामिल हैं। सिखों के पांचवें गुरु अर्जुनदेव ने ईसवी सन 1604 में गुरु वाणी का संकलन तैयार कर इसे गुरु ग्रंथ साहिब के रूप में संपादित किया था और 16 अगस्त 1604 को हरमंदिर साहिब, अमृतसर में इसकी स्थापना की थी। गुरु ग्रंथ साहिब की स्थापना के दिन को प्रकाश पर्व कहा जाता है। ईसवी सन 1705 में सिखों के दसवें गुरु गोबिंद सिंह ने गुरु तेगबहादुर के 116 शब्द जोड़कर इसे पूर्ण किया। उसके बाद से इसमें कोई बदलाव नहीं है। गुरु ग्रंथ साहिब में कुल 1430 पृष्ठ  हैं और यह गुरुमुखी में लिपिबद्ध किया गया है।

इस तरह इतिहास साक्षी है कि हम हिंदू जिस धर्म का पालन करते हैं, उसमें समय-समय पर परिवर्तन होता रहा है। इस परिवर्तन के फलस्वरूप नए धर्म और संप्रदाय बने हैं और यह प्रक्रिया रुकी नहीं है। अभी भी यह परिवर्तन की प्रक्रिया जारी है। 

(लेख में प्रस्तुत विचार लेखक के अपने हैं। Rajkaj.News की इन विचारों से सहमति अनिवार्य नहीं है। किंतु हम अभिव्यक्ति की स्वंत्रता का आदर करते हैं।)