इस रात का सवेरा
होना तो है यक़ीनन
लेकिन क्या साँझ वैसी
वैसे सकारे होंगे ?
कह के गये हैं 'साहिर'
मेहमाँ है ये अँधेरा
किसके रुका है रोके
फिर से नया सवेरा
मेहमाँ है आख़िर मेहमाँ
इक दिन तो जायेगा ही
उसने जो है बिगाड़ा
उसके सँवारे होंगे ?
क्या फिर से जी सकेंगे
जो दीप मर गये हैं
कितने गुज़र रहे हैं
कितने गुज़र गये हैं
जो कुछ है लील बैठी
इस रात की ये डायन
उस सब के बिन क्या फिर से
वैसे गुज़ारे होंगे ?
जो तम से लड़ रहे थे
जुगनू वे अब कहाँ हैं
जो भोर के थे प्रहरी
उनके ग़ज़ब कहाँ हैं
क्या दाग़ चन्द्रमा का
बढ़ के नहीं दिखेगा
क्या टूट जो चुके हैं
फिर वो सितारे होंगे ?
लोकेश कुमार सिंह
(लेख में प्रस्तुत विचार लेखक के अपने हैं। Rajkaj.News की इन विचारों से सहमति अनिवार्य नहीं है। किंतु हम अभिव्यक्ति की स्वंत्रता का आदर करते हैं।)
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