हिंदुओं में जातिवाद


ऋषिकेश राजोरिया की कलम से।  


कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष में मनाया जाने वाला पर्व नवरात्र हिंदुओं के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण त्योहार है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी, अष्टमी और नवमी अधिकांश हिंदू परिवारों में पारिवारिक और कौटुंबिक पर्व के रूप में मनाई जाती है। ज्यादातर परिवार ये त्योहार अपनी कुलदेवियों के नाम पर मनाते हैं। कई परिवारों में नवमी के दिन कन्याओं का पूजन कर उन्हें भोजन करवाने का रिवाज है। यह त्योहार प्रकारांतर से पूरे देश में प्रचलित है। हर कुटुंब की एक कुलदेवी होती है। कुलदेवता होते हैं। यह सब गोत्र के आधार पर होता है। लड़के-लड़कियों के विवाह तय करते समय गोत्र और वंश को बहुत महत्व दिया जाता है।

पूरा हिंदू समाज असंख्य जातियों में बंटा हुआ है। कई तरह की जातियां हैं, जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में बंटी हुई है। भारतीय पंचांग के विभिन्न माह और तिथियों के आधार पर उनके अलग-अलग पारिवारिक रीति-रिवाज हैं। कुछ जातियां स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानती हैं, कुछ श्रेष्ठ। बाकी जातियां इनसे निचले दर्जे की होती हैं। सर्वश्रेष्ठ जातियों में ब्राह्मण स्वयं को सर्वोपरि मानते हैं। उनके वंश वेदज्ञ ऋषियों व्यास, जैमिनी, याग्यवल्क्य, भार्गव, भारद्वाज, पाराशर, कपिल, गौतम वशिष्ठ आदि से प्रारंभ माने जाते हैं और इसी तरह के उनके उपनाम हैं। कुछ सर्वोच्च स्तर के ब्राह्मण चतुर्वेदी, त्रिवेदी, दीक्षित नामधारी हैं। इसके बाद और पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण तक तमाम उपनाम धारी ब्राह्मण है। अभी देश में पंद्रह सौ से ज्यादा ब्राह्मण जातियां पाई जाती हैं।

श्रेष्ठ जाति राजपूतों की है। ये अपना वंश किसी बड़े राजवंश से मानते हैं। इनके उपनाम मौर्य, चौहान, गुप्त, रघुवंशी, सूर्यवंशी, चंद्रवंशी, सोलंकी, सिसोदिया, राजपूत, ठाकुर, यादव, गुर्जर आदि हैं। दक्षिण भारत में भी तमाम क्षत्रिय जातियां हैं, जिनके उपनाम उत्तर भारत से अलग हैं। इन सभी के कुटुंबों में कुलदेवी होती है, जिसकी आराधना विशेष पारिवारिक अवसरों पर अवश्य की जाती है। उसी के आधार पर उनके पारिवारिक रीति-रिवाज हैं। वे ब्राह्मणों का सम्मान करते हैं और निचली जातियों के साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार करते हैं। हालांकि इस कुरीति को तोड़ने वाली क्षत्रिय जातियां भी बड़ी संख्या में हैं।

दक्षिण भारत में अलग क्षत्रिय हैं। वैश्य वर्ग से संबंधित जातियां सामान्य वर्ग की हैं। इनका वंश किसी राजा या धर्मोपदेशक से जुड़ा होता है। जैन महावीर के अनुयायी हैं और इनका अलग धर्म है। वे हिंदुओं के बीच उन्हीं की तरह रहते हुए कारोबार करते हैं और जैन धर्म का प्रचार भी करते हैं। वे जैनी कहलाते हैं। उन्होंने सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए हिंदुओं के बीच सम्मानजनक स्थान बना रखा है, लेकिन अपने समुदाय के आर्थिक हितों के लिए वे सरकार से स्वयं को अल्पसंख्यक घोषित करवाने की मांग भी करते रहते हैं। कई राजपूत भी जैन बन गए हैं। इस तरह की गतिविधियों के बीच वे हिंदुओं के सबसे बड़े संगठन विश्व हिंदू परिषद के सदस्य, पदाधिकारी भी बने हुए हैं। उनकी सामाजिक व्यवस्था में आर्थिक हित सर्वोच्च होता है।

वैश्य जातियों में माहेश्वरी, अग्रवाल, खंडेलवाल, आदि शामिल हैं। इनमें भारत के आर्थिक विकास में प्रमुख योगदान देने वाली प्रमुख जातियों में माहेश्वरी और अग्रवाल प्रमुख हैं। हालांकि जैन भी हैं, लेकिन वे आर्थिक विकास से होने वाले लाभ का एक हिस्सा जैन धर्म के प्रचार, विकास आदि पर करते हैं। इसके तहत महावीर और अन्य तीर्थंकरों के भव्य मंदिर बनते हैं। जैन साहित्य का विकास होता है। यह सिलसिला यहां तक पहुंच चुका है कि जैनियों के चौबीस तीर्थंकर मानते हुए संवत वर्ष को हिंदुओं के संवत वर्ष की तुलना में प्राचीन घोषित कर दिया गया है। भगवान ऋषभदेव से जैन धर्म का प्रारंभ माना गया है।

जैन धर्म अच्छी बातों से भरा हुआ है। सबकुछ ठीक है। लेकिन इसके साथ ही जैनियों में जातिवाद और कट्टरता भी है। महादेव की उपस्थिति, ब्रह्मा-विष्णु-महेश और भगवती की अवधारणा, वेदों की रचना, वैदिक संस्कृति का विकास, विचारधारा, व्याकरण आदि सनातन हैं और सनातन रहेंगे। इसको नकारते हुए अपना अलग पंथ चलाकर मूल सनातन धर्म का पालन करने वाले हिंदू समाज को गुमराह करने के प्रयास भारत में लंबे समय से चल रहे हैं। कई ताकतें कई तरह से इस अभियान में लगी हुई हैं। 

(लेख में प्रस्तुत विचार लेखक के अपने हैं। Rajkaj.News की इन विचारों से सहमति अनिवार्य नहीं है। किंतु हम अभिव्यक्ति की स्वंत्रता का आदर करते हैं।)