वैदिक ज्ञान का प्रवाह  

ऋषिकेश राजोरिया की कलम से।  

अगर हम राम और कृष्ण के अवतार को विश्वसनीय मानते हैं तो यह भी मानते हैं कि राम से पहले भारतवर्ष में सतयुग था। सतयुग में ऋषि-मुनि थे और उनका जीवन प्रकृति और गति के अनुसंधान के प्रति समर्पित था। उन्होंने सृष्टि में मौजूद पंच-तत्व जल, वायु, धरती, अग्नि और आकाश को लेकर अनुसंधान किया। सूर्य, धरती और चंद्रमा की गति का अध्ययन किया। आत्मा और परमात्मा के संबंधों का अध्ययन किया। देह के साथ प्रकृति के संबंधों का अध्ययन किया। मनुष्य की प्रकृति का अध्ययन किया। प्रकृति में मौजूद सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण की खोज की और मनुष्य के संदर्भ में उसका अध्ययन किया। तंत्र, यंत्र, स्वर और भावनाओं का अध्ययन किया।

इस संबंध में विभिन्न श्लोकों की रचना की और उन्हें गीतबद्ध करते हुए स्वर दिया, जिससे वे दोहराए जा सकें, याद किए जा सकें और अगली पीढ़ी तक पहुंचाए जा सकें। इसके लिए गुरुकुलों की स्थापना हुई जहां प्रतिभाशाली युवक श्लोकों को रटकर कंठस्थ करते हुए ब्राह्मण कहलाए। इन ब्राह्मणों ने वेदों से मिलने वाले ज्ञान को अगली पीढ़ी तक पहुंचाया और इस दौरान ऋषिगण नए अनुसंधान भी करते रहे। इस तरह भारत में ज्ञान का विकास होता रहा। ब्राह्मणों का महत्व इसी लिए है कि वे वेदों से मिले ज्ञान को निरंतर अगली पीढि़यों तक पहुंचाते रहे हैं।

मान्यता है कि वेदों का ज्ञान सबसे पहले ब्रह्मा ने ईश्वर से प्राप्त किया। उसके बाद यह ज्ञान उन्होंने अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ऋषियों को सौंपा। इसके बाद सात ऋषियों (सप्तऋषि) को यह ज्ञान मिला। ये हैं व्यास, जैमिनी, पतंजलि, मनु, वात्स्यायन, कपिल और कणाद। इनकी याद में सौरमंडल के एक तारा समूह का नाम सप्तर्षि रखा गया है। व्यास बादरायण के पुत्र माने जाते हैं, जो ब्रह्मा के पुत्र थे। वेद हमें ब्रह्मांड के अनोखे, अलौकिक और अनंत रहस्य बताते हैं, जो समय और समझ से परे है। वेदों में किसी भी मत, पंथ या संप्रदाय का उल्लेख नहीं होने से साबित होता है कि वेद विश्व में सबसे प्राचीन साहित्य है।

वेदों की प्रकृति की विज्ञान से निकटता के कारण अब पश्चिमी जगत भी इन्हें महत्व दे रहा है। ये सृष्टि के आदिकाल से हैं। स्वयं परमात्मा की तरफ से मानव मात्र के कल्याण के लिए यह ज्ञान दिया गया है। वेदों की रचना के बाद इनकी व्याख्या करने की परंपरा शुरू हुई। इसे प्रारंभ करने वाले पराशर, कात्यायन, याज्ञवल्क्य, व्यास और पाणिनी प्रमुख वेदवेत्ता हुए। इस तरह वैदिक ग्रंथों की रचना आरंभ हुई।

वैदिक ज्ञान श्रुति परंपरा के माध्यम से जीवंत रखा गया। ब्राह्मणों के माध्यम से इसका प्रचार हुआ। श्रुति परंपरा के तहत वेद मंत्रों के तीन विभाग हैं- पद्य, गद्य और गान। ऋग्वेद की रचना पद्य के रूप में है। यदुर्वेद गद्य रूप में है और सामवेद गीतों के माध्यम से रचा गया है। वेदों की रचना के बाद इनके भाष्य की रचना होने लगी। वेदों का संपूर्ण अध्ययन छह भागों में किया जाता है, जिसे वेदांग कहते हैं। ये हैं- शिक्षा, निरुक्त, व्याकरण, छंद, कल्प और ज्योतिष। 

शिक्षा का अर्थ है ध्वनियों का उच्चारण। शब्दमूल, शब्दावली और शब्द निरुक्त के विषय हैं। संधि, समास, उपमा, विभक्ति आदि का विवरण व्याकरण में है जो वाक्य रचना को समझने के लिए आवश्यक है। आघात और लय के साथ मंत्रोच्चारण या गायन के लिए छंद बनते हैं। कल्प में यज्ञ के लिए विधिसूत्र हैं, जिसके आधार पर वेदोक्त कार्य संपन्न किए जाते हैं। समय का ज्ञान और उसकी उपयोगिता जानने के लिए ज्योतिष है, जिसके तहत आकाशीय पिंडों (सूर्य, धरती और नक्षत्र) की गति और स्थिति का अध्ययन किया जाता है।

ऋग्वेद की 21 शाखाएं बताई गई हैं, जिनमें से वर्तमान में दो शाखाओं शाकल और शाखायन के ग्रंथ उपलब्ध हैं। यजुर्वेद में कृष्णयजुर्वेद की 86 शाखाओं में से चार तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल के ग्रंथ उपलब्ध हैं। शुक्लयजुर्वेद की 15 शाखाओं में से सिर्फ दो माध्यनिंदनीय और काण्य की शाखाएं प्राप्त हैं। सामवेद की एक हजार शाखाओं में से सिर्फ कौथुम और जैमिनीय शाखा के ग्रंथ उपलब्ध हैं। अथर्ववेद की नौ शाखाओं में से दो शौनक और पैप्पलाद की शाखाएं उपलब्ध हैं। इस तरह वेदों की 12 शाखाओं के ग्रंथ उपलब्ध हैं, जिनमें से सिर्फ छह (शाकल, तैत्तिरीय, माध्यनंदिनी, काण्य, कौथुम और शौनक) की अध्ययन शैली की जानकारी उपलब्ध है।

हम समझ सकते हैं कि सतयुग में सबसे पहले ज्ञान अर्जन और उसका प्रसार अगली पीढि़यों तक करने की परंपरा बनी। जैसे-जैसे वेदों के भाष्य का सिलसिला आगे बढ़ा, वैदिक सिद्धांतों को लेकर ऋषियों मतभेद बनने लगे थे और उन्होंने अपने दर्शन प्रस्तुत किए। इस तरह वेदों के बाद छह दर्शन बने जिन्हें षट्दर्शन कहा जाता है, जिनमें न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदांत शामिल हैं। 

(लेख में प्रस्तुत विचार लेखक के अपने हैं। Rajkaj.News की इन विचारों से सहमति अनिवार्य नहीं है। किंतु हम अभिव्यक्ति की स्वंत्रता का आदर करते हैं।)